रंग-बिरंगी क्यों बनाई जाती हैं दवाएं, मेडिकल साइंस या मनोविज्ञान, यहां समझें

दवा
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नई दिल्ली : भागदौड़ भरी जिंदगी में हम अक्सर बीमार होने के कारण दवाइयों का सेवन करते हैं। सेहत बिगड़ने पर हमें अक्सर लाल, पीली, नीली यानी रंगीन गोलियों की जरूरत पड़ने लगती है। हम इन्हें खाते भी हैं, लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि अलग-अलग रंगों में आने वाली है दवाएं या कैप्सूल रंग-बिरंगे क्यों बनाए जाते हैं ?

दरअसल दवाओं का रंग और आकार अलग-अलग होता है, लेकिन यह इतना सामान्य भी नहीं है। इसके पीछे मेडिकल साइंस के अलावा ‘पहचान की समस्या ना हो’ ऐसा सुनिश्चित किया जाना है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक इंसानी सभ्यता में सबसे पहले दवाओं को टैबलेट बनाकर मिस्र में इस्तेमाल किया गया था। उस समय विज्ञान विकसित नहीं था तो दवाओं को मिट्टी और ब्रेड में मिक्स करके तैयार किया जाता था।

1960 के दशक में दवाओं का रंग बदलना शुरू हुआ। 1975 में कैप्सूल तैयार करने की तकनीक- सॉफ्टजेल नाम से जानी गई। इस तकनीक के आने के बाद दवाओं का रंग आकार बदलना शुरू हुआ।

एक सीनियर डॉक्टर के मुताबिक दवाओं का रंग अलग-अलग इसलिए होता है क्योंकि दवाओं को बनाने में अलग-अलग केमिकल का प्रयोग होता है। जिस केमिकल या ड्रग का इस्तेमाल होता है उसी के आधार पर दवाओं का रंग तय होता है। जिन दवाओं को बनाने में कार्बन का इस्तेमाल होता है आम तौर पर उनका रंग काला होता है।

रंग बिरंगी दवाएं सीधे इस्तेमाल होने वाले ड्रग्स से जुड़ी होती हैं। इसलिए उनकी आसानी से पहचान भी हो जाती है। दरअसल रंग के आधार पर दवाओं को पहचानने में मदद मिलती है। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में दवाओं को बनाने में लगभग 80000 से अधिक कलर कंबीनेशन का प्रयोग हो रहा है।

आपने अक्सर देखा होगा कि कैप्सूल दो रंगों का होता है। कैप्सूल में 2 हिस्से होते हैं। एक कंटेनर यानी जिसमें दवा भरी जाती है और दूसरा उसका कैप होता है जिससे उसे बंद किया जाता है। इस पर एक्सपर्ट कहते हैं कि कैप्सूल के कैप और कंटेनर के बीच अंतर बनाए रखने के लिए 2 रंगों का इस्तेमाल होता है।

इसके अलावा दवाओं में अलग-अलग केमिकल और ड्रग्स का इस्तेमाल किया जाता है इनके आधार पर इसकी पहचान आसान बन जाती है। फार्मासिस्ट बताते हैं कि मरीजों के लिए दवाओं का स्वाद भी जरूरी होता है इसलिए दवाओं के रंगीन होने से मरीज आसानी से इसके स्वाद को समझने का प्रयास करते हैं।

अलग-अलग तरह की दवाओं को बनाने वाली कंपनियां अपने ब्रांड कलर का भी प्रयोग करने लगी हैं। अब कॉम्पिटेटिव मार्केट में अलग-अलग रंग की दवाएं ज्यादा बिकने लगी हैं।

नकली दवाएं भी एक बड़ी समस्या है। नकली दवाओं की बिक्री और इसके निर्माण पर नकेल कसने के लिए इंटरनेशनल मार्केट में दवाइयों का एक कलर पैटर्न है। इस पैटर्न को अधिकांश कंपनियां फॉलो करती हैं। ऐसा करने से नकली दवाओं पर अंकुश लगाने में मदद मिलती है।

तीन तरीकों से रंगी जाती है दवाई
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक किसी भी दवा या टैबलेट को तीन अलग-अलग तरीकों से कलर किया जा सकता है। एक तरीका घुलने वाले पिगमेंट को टेबलेट के बेस में जोड़कर गोलियों को रंगीन किया जाना है। विज्ञान के मुताबिक दवा बनाने में जिन चीजों का प्रयोग हुआ है उनको नेचुरल कलर से मास्क (कवर करना या रंगना) करने में मदद मिलती है। दूसरा तरीका सुगरकोटिंग यानी चीनी का लेप लगाना है। इसमें समय ज्यादा लगता है। तीसरा तरीका फिल्म कोटिंग के नाम से जाना जाता है। आमतौर पर इस तरीके से दवा रंगने की विधि में स्प्रे का प्रयोग होता है। इसमें टेबलेट के सिरे पर एक पतली सी लेयर बनाई जाती है।

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