चंडीगढ़। ड्रग इंस्पेक्टर तथा ड्रग एनालिस्टों की कमी के चलते दवाइयों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। इस कारण तकरीबन रोजाना नकली दवाइयों के मामले चर्चा में रहते हैं। इससे देश में दवा निर्माता कंपनियों की साख पर सवालिया निशान लग रहा है। अधिकतर कंपनियां दवा निर्माण के लिए तय मानकों की पालना नहीं कर रही, वहीं सरकार भी संसाधनों की कमी में कुछ नहीं कर पा रही है।
जानकारी अनुसार सेंट्रल ड्रग्स स्टैण्डर्ड कंट्रोल आर्गेनाइजेशन और स्टेट ड्रग कंट्रोल डिपार्टमेंट ने पिछले दो वर्षों में लगभग 170 दवा कंपनियों के नमूने लेकर जांचे। इनमें करीब 105 कंपनियों के सैंपल फेल हो गए। नियमानुसार, बाजार में आने वाली सभी दवाओं को लैब में जांच के समय तय मानकों में से कम से कम 75 प्रतिशत मानकों को आवश्यक रूप से पूरा करना चाहिए परन्तु ज्यादातर कंपनियों की हालत यह है कि इनकी बनाई हुई दवा आधे मानकों को भी पूरा नहीं कर पा रही हैं। तय मानकों के अनुसार रॉ एक्टिव इन्ग्रेडीयेंट की स्टोरेज कंडीशन तथा दवा में उसकी न्यूनतम मात्रा, मशीनों की क्वालिटी तथा कर्मचारियों का स्तर प्रमुख है।
नियमानुसार प्रति वर्ष दो लाख चालीस हजार दवाओं के नमूनों की जांच सरकारी लैबों में होनी चाहिए परन्तु जांच सिर्फ एक लाख नमूनों की ही हो पा रही है। इस प्रकार लगभग 58 प्रतिशत दवाओं की जांच सरकारी प्रयोगशालाओं में नहीं हो पा रही है। इसका प्रमुख कारण सरकारी प्रयोगशालाओं की भारी कमी होना है।
वर्तमान में देश में केंद्र सरकार की सात तथा विभिन्न राज्य सरकारों की कुल मिलाकर 36 लैब मौजूद हैं। जहां पर दवाइयों के सैंपल की जाँच करने की सुविधा है। नियमों के हिसाब से अगर देखा जाए तो अभी भी देश में लगभग बीस से अधिक लैबों की जरूरत और है। जो प्रयोगशालाएँ बनी हुई हैं उनमे भी दवाओं की गुणवत्ता की जांच करने वाले विशेषज्ञ कर्मचारियों (ड्रग एनालिस्ट) की भारी कमी है।
सरकारी लैबों तथा इन लैबों में विशषज्ञों की भारी कमी का सीधा-सीधा फायदा दवा कंपनियों को मिल रहा है। सरकारी लैबों की कमी की वजह से कंपनियां अपने सैंपल की जाँच या तो खुद अपने स्तर पर कर लेती है और या किसी निजी लैब से जांच करवा लेती हैं। निजी लैबों में मिलीभगत की सम्भावना अधिक हो जाती है तथा सैंपल आसानी से पास करवाए जा सकते हैं। खुद की बनाई हुई दवा की जाँच खुद द्वारा करना चोर द्वारा चोरी की जाँच करने के समान हो जाता है तथा गड़बड़ी की पूर्ण सम्भावना बन जाती है तथा कही न कहीं गुणवत्ता से समझौता अवश्य हो सकता है। खुद की बने हुई दवा को फेल करना बहुत मुश्किल होता है।
दवा कंपनियों को लाइसेंस देने की प्रक्रिया भी बहुत हद तक त्रुटिपूर्ण है। दवा निर्माण कंपनियों को लाइसेंस देते समय यह देखा जाता है कि इन कंपनियों से बनने वाली दवा की गुणवत्ता 95 प्रतिशत तक सही हो। एक बार जारी हुए लाइसेंस की वैधता लाइफटाइम होती है और इसे हर पांच वर्षों में मामूली फीस के साथ केवल नवीनीकृत ही कराना पड़ता है। सरकार के पास संसाधनों की कमी की वजह से इनकी बार-बार जांच करना संभव नहीं होता है। नतीजन दवाओं की गुणवत्ता से समझौता होने की आशंका बढ़ जाती है। अनुमान के तौर पर देश में लगभग तीन हजार से अधिक ड्रग्स इंस्पेक्टरों की आवश्यकता है परन्तु कार्यरत इसके आधे ही हैं। ड्रग इंस्पेक्टरों की इस भारी कमी की वजह से समय पर दवाओं के सैंपल नहीं लिए जा पा रहे हैं तथा दवाइयों की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। माशलेकर कमेटी द्वारा वर्ष 2003 में केंद्र सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि प्रत्येक ड्रग मैन्युफैक्चरिंग यूनिट तथा प्रत्येक 200 मेडिकल स्टोर पर एक ड्रग इंस्पेक्टर होना चाहिए परन्तु वर्तमान समय में देश में मात्र 1500 ड्रग्स इंस्पेक्टर ही कार्यरत हैं।