नई दिल्ली: एक राष्ट्रीय चैनल की पड़ताल में नामी दवा कंपनियों और अस्पतालों के गठजोड़ से मरीजों को खुले तौर पर लूटने का मामला सामने आया है। लूट का यह अड्डा और कहीं नहीं बल्कि देश के प्रतिष्ठित अस्पताल अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के बाहर बना है। जानी-मानी दवा निर्माता कंपनियां अस्पतालों और स्टॉकिस्टों को दवाओं के मूल्यों की जो कोटेशन देती हैं, उससे खंगालने पर भारी गोलमाल उजागर हुआ। एम्स के बाहर स्थित दवा दुकानों पर रोजाना मेले जैसा माहौल नजर आने का बड़ा कारण यह नहीं कि यहां सब तरह की दवा उपलब्ध है बल्कि दवा विक्रेता ग्राहकों को लुभाने के लिए अच्छी-खासी छूट की पेशकश भी करते हैं।
पड़ताल के मुताबिक, उदाहरण के तौर एमक्योर फार्मास्यूटिकल्स ने Temcure 250 Mg नाम की दवा अमृतसर के एक कैंसर अस्पताल को 1,950 रुपए में देने की पेशकश की। वहीं मरीज को इसके लिए नौ गुणा यानी 18,647 रुपए का भुगतान करना पड़ रहा है। इसी तरह Pemcure 500 mg नाम की दवा के लिए मरीज से 16,500 रुपए झटके जा रहे हैं वहीं अस्पताल इसे सिर्फ 3,190 रुपए में हासिल कर सकता है।
रिलायंस लाइफ साइंसेज कंपनी अस्पतालों को कैंसर की दवा TrastuRel 440 mg 30,875 रुपए में ऑफर करती है। वहीं मरीज को इस दवा के लिए 58,602 रुपए देने पड़ते हैं। इसी तरह RituxiRel नाम की ड्रग का एमआरपी 36,916 रुपए दिखाया गया है लेकिन अस्पताल को ये सिर्फ 14,970 रुपए में मिलती है। दिल के मरीज भी दवाओं की मुनाफाखोरी की मार से नहीं बच रहे हैं। हेल्थकेयर की बड़ी कंपनियों में शुमार होने वाली एबॉट की कोटेशंस से पता चलता है कि ये अपनी ब्रांडेड ड्रग्स अस्पतालों को सिर्फ एमआरपी की एक तिहाई कीमत में ही उपलब्ध करा रही है। Retelex 18 mg नाम की एंटी-कॉग्यूलेंट ड्रग अस्पतालों को जहां 18,000 रुपए में ऑफर की जा रही है वही मरीजों को इसके लिए 32,700 रुपए का भुगतान करना पड़ता है। दिल के रोगों में इस्तेमाल की जाने वाली दवा Eptifab 100 ml के लिए मरीज को 12,331 रुपए देने पड़ते हैं, वहीं अस्पतालों को ये दवा 3,500 रुपए में ही मिल जाती है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 का दस्तावेज बताता है कि स्वास्थ्य पर किया जाने वाला खर्च हर साल 6.3 करोड़ रुपये लोगों को गरीबी रेखा से नीचे धकेल देता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की स्टडी बताती है कि भारत में चिकित्सा उपचार पर होने वाले खर्च में से 89.2 फीसदी हिस्सा खुद मरीजों की जेब से ही निकलता है। फार्मा इंडस्ट्री से जुड़े सूत्र बताते हैं कि अस्पतालों को दवाएं इसलिए सस्ते में मिलती हैं क्योंकि वो बड़ी मात्रा में इन्हें खरीदते हैं।