नई दिल्ली
हमारे देश की जो आबोहवा है, उसमें दो दवाइयों की खपत सबसे ज्यादा है। पहली दवा नहीं है बल्कि वो ग्लूकोज है जो मरीज के किसी भी अस्पताल में पहुंचते ही उसे दिया जाता है और दूसरी दवा है पैरासीटामॉल। दोनों ही बेसिक जरूरत हैं, हर वक्त की बड़ी जरूरत।

सरकार का नियम है कि ग्लूकोज (कॉमन सोल्यूशन) या डीएनएस-5 की एमआरपी 25 रुपये से ज्यादा नहीं होगी और सोडियम क्लोराइड की 100 एमएल की बोतल की एमआरपी 14 रुपये से ज्यादा नहीं होगी। इतनी कम एमआरपी और कड़े सरकारी नियंत्रण के बाद भी कमीशनखोर कंपनियों और डॉक्टरों ने इसका तोड़ निकालकर रख दिया है।

देखिए – दो कंपनियां हैं, सबसे पहले तो इन्होंने दुनिया में ऐसी जगह से वो ग्लूकोज और सोडियम क्लोराइड खरीदे, जहां पर ये सबसे सस्ते मिलते हैं। (सबसे सस्ता माल चीन में ही मिलता है।) वहां से इन्होंने माल इम्पोर्ट किया मलेशिया। मलेशिया में ये चीजें कांच या प्लास्टिक की बोतल की जगह पॉलीथिन में पैक कराई और भारत मंगवा लिया। कुल मिलाकर जो लागत आई, वो भारत में इन्हें बनाने से भी कम की है। माल भारत पहुंचने यह मुनाफे का खेल खुलेआम चलना शुरू हो जाता है।

क्या है खेल – ग्लूकोज की जो बोतल सरकारी नियंत्रण के चलते 25 रुपये से ज्यादा नहीं बेची जा सकती थी, पॉलीथिन के पैक में वही चीज 80 रुपये में बेची जा रही है और कमीशन के चक्कर में डॉक्टर जबरदस्ती यही पॉलीथिन पैक मरीजों को चढ़ा रहे हैं। यही हाल सोडियम क्लोराइड की 100 एमल की बोतल का है। 14 रुपये से ज्यादा इन्हें भी नहीं बेचा जा सकता। लेकिन पॉलीथिन पैक में ये 90 रुपये की बेची जा रही है।

एमबीबीएस की सरकारी फीस है 45 हजार रुपये सालाना। सरकार एमबीबीएस के एक छात्र पर कम से कम 6 लाख रुपये सालाना खर्च करती है। डिग्री पूरी होते होते ये मामला 50 लाख के आसपास बैठता है जो सरकार हमपर कई तरह के डायरेक्ट और इनडायरेक्ट टैक्सेस लगाकर वसूलती है। ऊंची जाति के डॉक्टरों और इंजीनियरों का ये संगठन आरक्षण का प्रबल विरोधी है। ये वही लोग हैं जो न तो खुद गांव जाकर एक साल की कंपलसरी प्रैक्टिस करते हैं और न ही गांव में सेवा करने के लिए मेडिकल की पढ़ाई करने के इच्छुक पिछड़े लोगों को मेडिकल में आने देना चाहते हैं।