चंडीगढ़। ब्रेन स्ट्रोक (पैरालिसिस या लकवा) के मरीजों के लिए समय बहुत ही मायने रखता है। यदि पेशेंट समय पर अस्पताल पहुंच जाए तो उसकी विकलांगता को काफी हद तक बचाया जा सकता है, लेकिन इससे बड़ी समस्या ब्रेन स्ट्रोक की दवाई टीपीए (टिश्यू प्लाजमाइनोजेन एक्टीवेटर) का इंतजाम करना है। ब्रेन स्ट्रोक की दवाई की कीमत करीब 35 से 60 हजार रुपये है। स्ट्रोक होने के साढ़े चार घंटे के भीतर मरीज को यह दवा हर हालत में मिल जानी चाहिए। करीब 15 फीसदी मरीज बिना इलाज के वापस चले जाते हैं। पंजाब और हिमाचल प्रदेश के अस्पतालों में यह दवाएं मुफ्त में दी जाती हैं। एम्स में भी मरीजों को राहत दी जाती है, मगर न तो पीजीआई में इस तरह का प्रावधान है और न ही मेडिकल कालेज में।
पीजीआई व मेडिकल कालेज के डॉक्टरों का कहना है कि यूटी प्रशासन को इसमें दखल देना चाहिए और प्राथमिकता के तौर पर मरीजों को मुफ्त दवा देने की दिशा में कदम उठाना चाहिए। पीजीआई के स्ट्रोक प्रोग्राम के इंचार्ज डॉ. धीरज खुराना के अनुसार नवंबर 2017 से अक्तूबर 2018 तक सिर्फ 25 फीसदी मरीजों को इलाज मिल पाया, जबकि 75 फीसदी को नहीं। इनमें अधिकतर मरीज देरी से पहुंचे, जबकि कुछ मरीज इलाज के खर्च को वहन नहीं कर पाए। ऐसे में मरीजों को चाहिए कि वे ब्रेन स्ट्रोक के लक्षण के प्रति जागरूक रहें और उसके खतरे को कम करते रहें। उनके मुताबिक भारत में हर साल 17 से 18 लाख स्ट्रोक केस आते हैं और इनमें से सात से आठ लाख मरीजों की मौत हो जाती है।
सेक्टर-32 मेडिकल कालेज के मेडिसिन के प्रोफेसर डॉ. राम सिंह ने बताया कि स्ट्रोक आने पर समय पर अस्पताल पहुंचने के लिए उसके लक्षणों को जानना जरूरी होता है। यदि लोगों को लक्षण के बारे में पता ही नहीं होगा तो वे देरी से अस्पताल पहुंचेंगे। इसलिए पहले लक्षण जानना जरूरी है और उसके बाद तुरंत अस्पताल में और मरीज को उस हास्पिटल में पहुंचना चाहिए, जहां पर सीटी स्कैन की सुविधा 24 घंटे हो और ब्रेन स्ट्रोक का इलाज उपलब्ध हो। यदि मरीज साढ़े चार घंटे के भीतर पहुंच गया और दवा खरीदने के लिए सक्षम है तो उसकी विकलांगता को बचाया जा सकता है।