मुंबई। देश की बड़ी दवा कंपनियों को अमेरिकी जेनेरिक बाजार में निवेश पर औसत रिटर्न (आरओसीई) में गिरावट का सामना करना पड़ रहा है, हालांकि, पिछले पांच वर्षों के दौरान बाजार हिस्सेदारी बढक़र दोगुनी हो चुकी है। भारतीय कंपनियों ने उम्मीद जताई है कि आगामी तिमाहियों के दौरान अमेरिकी बाजार में मूल्य निर्धारण पर दबाव में कमी आएगी। जेनेरिक दवा बाजार का आकार सालाना करीब 60 अरब डॉलर का है। जेनेरिक दवा बाजार में टेवा, माइलन और सैंडोज जैसी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों ने पहले जबरदस्त निवेश के जरिए वर्चस्व हासिल किया था, लेकिन भारी ऋण बोझ के कारण अब वे चुनौतियों से जूझ रही हैं। एडलवाइस के विश्लेषक दीपक मलिक का कहना है कि अपना ऋण बोझ घटाने के उद्देश्य से टेवा और सैंडोज ने हाल में अपने कुछ जेनेरिक दवा कारोबार से बाजार होने का निर्णय लिया था। कमजोर बहीखाते के साथ भारतीय जेनेरिक दवा कंपनियां इसे अपनी बाजार हिस्सेदारी बढ़ाने का एक अवसर के रूप में देख रही हैं। अमेरिकी जेनेरिक दवा बाजार में शीर्ष 10 भारतीय दवा कंपनियों की बाजार हिस्सेदारी 2012-13 में 10.5 फीसदी थी, जो बढक़र 2017-18 में 19.5 फीसदी हो गई। ठीक उसी समय इस क्षेत्र के औसत आरओसीई में गिरावट दर्ज गई है। वित्त वर्ष 2013 में औसत आरओसीई 25 फीसदी थी जो घटकर वित्त वर्ष 2018 में महज 13 फीसदी रह गई। इस गिरावट की मुख्य तौर पर दो वजहें हैं। पहला, जेनेरिक दवाओं के कमोडिटीकरण से मूल्य में गिरावट और दूसरा, अनुसंधान एवं विकास और विस्तार दोनों में निवेश वृद्धि।  मुंबई के एक विश्लेषक ने कहा कि खाने वाली दवाओं की कीमतों में सबसे अधिक गिरावट दर्ज की गई है क्योंकि ओरल डोज फॉर्मूलेशन के साथ तमाम कंपनियां अमेरिकी बाजार में प्रवेश कर चुकी हैं। एक समय यह गिरावट 90 फीसदी तक पहुंच गई थी क्योंकि पांच से छह कंपनियों ने एक साथ बाजार में कदम रखा था। हालांकि दवा कंपनियों को यह सुगमता दिख रही है। ल्यूपिन के मुख्य कार्याधिकारी (अमेरिकी जेनेरिक बाजार) आलोक सोनिंग का कहना है कि अब हम अमेरिका के जेनेरिक दवा बाजार में कीमत के मोर्चे पर स्थिरता देख रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस उद्योग ने कीमत में भारी गिरावट का सामना किया है लेकिन अब उसमें स्थिरता दिख रही है। हमारा मानना है कि मूल्य में गिरावट एकल अंक में रहेगी।
आरएंडडी के मोर्चे पर कंपनियां बुनियादी दवाओं से अब जटिल जेनेरिक एवं विशेष उपचार वाली दवाओं की ओर रुख कर चुकी हैं जिससे लागत बढ़ी है। वित्त वर्ष 2014 से 2018 के दौरान इस क्षेत्र में आरएंडडी निवेश सालाना 70 करोड़ डॉलर से बढक़र 1.6 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। सोनिंग ने कहा कि ल्यूपिन ने अपने आरएंडडी खर्च को शुद्ध बिक्री के करीब 10 फीसदी पर बरकरार रखा है और यह आगे भी जारी रहेगा। हालांकि जटिल जेनेरिक एवं विशेषीकृत दवाओं के लिए अधिक आरएंडडी निवेश की जरूरत हो सकती है, लेकिन हम निवेश के मोर्चे पर हम काफी चयनात्मक रुख अपना रहे हैं। हम उन्हीं परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं जहां हमें सीमित प्रतिस्पर्धा के साथ अपेक्षित रिटर्न हासिल हो सके। विश्लेषकों का कहना है कि भारतीय कंपनियां बहीखाते के मोर्चे पर अपने वैश्विक प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं। एडलवाइस के आंकड़ों से पता चलता है कि भारतीय औषधि कंपनियों का शुद्ध ऋण बनाम एबिटा अनुपात वैश्विक औषधि कंपनियों के मुकाबले बेहतर है।