नई दिल्ली। सरकार अगर अंतर मंत्रालयी समिति की सिफारिशों को मान लेती है तो कैंसर और अन्य असाध्य बीमारियों की पेटेंट वाली महंगी दवाइयां सस्ती हो जाएंगी। इनमें पेटेंट रखने वाली कंपनी की अनुमति के बिना ही दवाइयों के उत्पादन के लिए किसी भी भारतीय कंपनी को अनिवार्य लाइसेंस देने का सुझाव भी शामिल है। अधिकारियों के मुताबिक सरकार समिति की रिपोर्ट पर विचार कर रही है और मार्च तक इस पर कुछ फैसला लिए जाने की उम्मीद है।
दवा विभाग द्वारा गठित संयुक्त सचिवों की अंतर-मंत्रालयी समिति ने विभिन्न देशों की क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) का विश्लेषण कर जीवनरक्षक दवाइयों की अधिकतम कीमत निर्धारित करने का भी सुझाव दिया है। ज्यादातर पश्चिमी देशों में दवाइयों की कीमत तय करने में इस प्रक्रिया को ही अपनाया जाता है।
भारत में बेचे जाने वाली ज्यादातर पेटेंट वाली दवाइयों पर बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों का एकाधिकार है। ये कंपनियां ऐसी दवाइयों की अधिकतम मूल्य सीमा तय करने और दूसरी कंपनियों को इसके उत्पादन के लिए अनिवार्य लाइसेंस देने किसी भी योजना खुलकर विरोध करती हैं। मौजूदा समय में भारत में सालाना 2.3 लाख करोड़ रुपए का दवा का कारोबार होता है। इसमें लगभग 30 फीसद हिस्सा पेटेंट दवाइयों का है, जबकि शेष राशि की कमाई जेनेरिक दवाइयों की बिक्री से होती है। समिति ने कहा कि कैंसररोधी और फंगसरोधी पेटेंट दवाइयों की कीमत बहुत ज्यादा है। समिति ने उदाहरण देकर बताया है कि कैंसर के लिए इलाज में काम आने वाले एक इंजेक्शन की कीमत लगभग एक लाख रुपए है। समिति ने मधुमेहरोधी पेटेंट दवाइयों की कीमत को कम किए जाने की सिफारिश की है।
साथ ही यह भी कहा है कि अहम दवाइयों का पेटेंट रखने वाली कंपनियों को उसके उत्पादन के लिए स्वेच्छा से किसी दूसरी कंपनी को लाइसेंस देने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पैनल ने यह भी कहा कि आम लोगों को न्यूनतम कीमत पर जीवनरक्षक दवाइयां मुहैया कराने के लिए सरकार को दवा कंपनियों से बातचीत कर कम दर पर दवाइयां खरीदने के विकल्पों की भी तलाश करनी चाहिए।
समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत में पेटेंट दवाइयों की कीमतों पर नियंत्रण रखने के लिए एक प्रभावकारी व्यवस्था बनाना आवश्यक है। मौजूदा व्यवस्था के तहत कोई कंपनी शोध के बाद किसी दवा को तैयार करती है तो बौद्धिक संपदा अधिकार के तहत उस पर उसे 20 साल के लिए पेटेंट मिल जाता है। पेटेंट मिलने के बाद कंपनी किसी दूसरी कंपनी को उस दवा का उत्पादन करने से रोक सकती है। अगर एक भी दवा घटिया पाई जाती है तो निर्माता को पूरे बैच के अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) के बराबर जुर्माना देना पड़ सकता है। स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि आमतौर पर एक बैच में एक हजार से लेकर एक लाख यूनिट होती हैं। हालांकि, टैबलेट या तरल के रूप में होने वाली दवा के आधार पर बैच का आकार निर्भर करती है। अधिकारी ने बताया कि औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम के अलावा केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) द्वारा प्रस्तावित नया प्रावधान दोषपूर्ण पैकेजिंग पर भी लागू होगा।