तकनीकी पेंचीगदगियों के बीच धड़ल्ले से हो रही बिक्री

नई दिल्ली

सिर में दर्द होता है, तो झट से पेन किलर खा लेते हैं। पेट में दर्द हुआ, तो दवा के डिब्बे से पेट दर्द की दवा तब आपके लिये रामबाण बन जाती है और जब पेचिस आती है, तो डॉक्टर के पास जाने से पहले आप लोमोफेम या डिपेंडॉल खा लेते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं भारत में बिकने वाली प्रत्येक 7 में से 1 दवा मानक से नीचे हैं। ये वो दवाएं हैं, जिन्हें अमेरिका, कोरिया, जापान, चीन जैसे देशों ने बैन कर दिया है या फिर रिजेक्ट कर दिया है, लेकिन भारत में आसानी से उपलब्ध हैं। और तो और डॉक्टर मरीजों को ऐसी दवाएं देते भी हैं।

पिछले पांच सालों में किए गए अध्ययन के अनुसार, जो दवाएं बाजार में बेची जा रही हैं, उनमें से अधिकांश बीमारियों को दूर करने के बजाय बढ़ाती हैं। भारत के लोग प्रति वर्ष 383 दवाएं खा जाते हैं। आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त  दवा कंपनियां प्रतिवर्ष 289 बिलियन दवाएं बनाती हैं। बाकी की बची 95 बिलियन दवाएं कहां बनती हैं, किसी को नहीं मालूम। ये वो दवाएं हैं, जो नकली हैं और जहर के रूप में फैल चुकी हैं।

भारत सरकार के पास दवा बनाने वाली कंपनियों का संपूर्ण संगठित डाटा उपलब्ध नहीं है, जो यह बता सके कि कितनी कंपनियों के पास लाइसेंस हैं, कितनों के लाइसेंस कब तक वैलिड हैं, कौन सी कंपनी सालाना कितनी दवाओं का उत्पादन कर रही है।
भारत सरकार के पास इस बात का भी संगठित रिकॉर्ड नहीं है कि आपके पड़ोस में फार्मेसी की दुकान के मालिक के पास लाइसेंस है भी या नहीं। और उपभोक्ता कभी केमिस्ट से पूछते भी नहीं हैं कि उनके पास लाइसेंस है या नहीं।

दवा खरीदते वक्त लोग केवल एक्सपाइरी डेट देखते हैं। यह नहीं देखते कि कितने दिन पहले से यह दवा सही स्टोरेज सुविधा के अभाव को झेल चुकी है। तापमान में थोड़ा सा भी परिवर्तन दवा के अंदर रसायनिक परिवर्तन कर सकता है। उदाहरण- फरवरी 2016 में दवा खरीदते वक्त आपने देखा कि दवा की एक्सपाइरी डेट दिसंबर 2017 है और आप झट से उसे खरीद लेते हैं। लेकिन आपने नहीं देखा कि मैन्युफैक्चरिंग डेट जनवरी 2015 थी। यानि पिछले एक साल से ज्यादा समय तक यह दवा अलग-अलग तापमान में रही, अलग-अलग जगहों पर रखी रही। उसमें रसायनिक परिवर्तन तो लाजमी हैं।