अम्बाला। लंबे समय से दवा निर्माण कार्य में लीन कम्पनियां धन अर्जन के लिए दवा विक्रय के नियमों में चोर दरवाजे से आने-जाने में गुरेज नहीं करतीं। दवा निर्माता अस्पताल सप्लाई के नाम पर उत्पाद तो बना देते हैं, परन्तु इन उत्पादों पर अस्पताल सप्लाई के शब्द अंकित नहीं करते मात्र 50 से 100 डिब्बों के बड़े कंटेनर के ऊपर स्टैम्प लगाकर अपना फर्ज इतिश्री कर लेते हैं। रेट अस्पताल सप्लाई के अनुसार ही भेजते हैं। इसकी आड़ में दवा अस्पताल में पहुंचते ही दवा के ऊपरी आवरण, कंटेनर, पेटी को अलग कर दवाइयां लूज स्ट्रिप, बोतल, इंजेक्शन, अन्य उत्पाद साधारण उत्पादों की दर प्राइज तो रिटेलर के दाम पर बेच देते हैं।
भले ही क्रेता अस्पताल परिसर में दुकान चलाता हो या खुले बाजार में, अस्पताल सप्लाई व बाजार के दाम में बड़ा अंतर होता है जिसका पूरा लाभ अस्पताल संचालक की जेब मे जाता है। सरकार को लाभांश के रूप में शून्य पर सब्र करना पड़ता है क्योंकि अस्पताल संचालक अपनी टेबल से दवा नहीं देता जबकि खरीदी अपने नाम से करता है और दवा विक्रेता अस्पताल परिसर में होने के बावजूद अस्पताल से इन दवाओं का क्रय प्रमाण 6 बिल /केश बिल 8 नहीं मांगता। जबकि विक्रय के प्रमाण अवश्य जारी करता है। ऐसे में औषधि प्रशासन को पूरी जानकारी होने के बावजूद कोई भी कार्यवाही न करना कई सवालों को जन्म अवश्य देता है। उत्तर कहीं से भी नहीं मिलता। इस बारे ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया डॉ. सोमानी से उनका पक्ष जानने के लिए फोन किया तो उनका नंबर अनुत्तरित रहा।