वर्तमान भारत में अस्थमा के मरीजों की संख्या करीब तीन करोड़, बच्चे ज्यादा शिकार

आगरा (उत्तर प्रदेश)

चिकित्सकों की मानें तो अस्थमा से अमीर घरों के बच्चे ज्यादा शिकार हो रहे हैं। इसका कारण है कि यह बच्चे हर तरह के वातावरण को एडजस्ट नहीं कर पाते हैं। जबकि गरीब बच्चे हर माहौल को एडजस्ट कर लेते हैं। अमीरों के बच्चे एसी घर में रह रहे हैं। स्कूल भी एसी बस से जा रहे हैं। स्कूल भी एसी से युक्त है। साफ- सफाई हर सुख सुविधा के साथ रहता है। लेकिन जब वह जरा से भी बाहरी क्षेत्र में पहुंचता है तो वह हर माहौल को एडजस्ट नहीं कर पाता है। इसलिए वह जल्द ही इस बीमारी से ग्रस्त हो जाता है।

अस्थमा क्रोनिक लंग्स डिजीज है। इसमें सांस की नलियां प्रभावित होती हैं। सांस की नलियों में सूजन आ जाती है। भारत में अस्थमा के मरीजों की संख्या वर्तमान में तीन करोड़ है। हर 100 में से दो व्यक्ति को अस्थमा के मरीज है। इसमें पांच से 14 साल तक के बच्चों को अस्थमा ज्यादा होता है। बच्चों में यह प्रतिशत सात से 10 तक पाया जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वातावरण में मात्र 25 माइक्रोग्राम आरएसपीएम होना चाहिए। जबकि आज के समय यह पांच से छह गुना बढ़ चुका है। इसकी संख्या वर्तमान में 200 से 300 तक पहुंच चुकी है। पिछले 25 सालों में दो से तीन गुना औद्योगीकरण, जनसंख्या वृद्धि, पेड़ों का कटना आदि के कारण आरएसपीएम बढ़ गया है।

अस्थमा को लेकर लोगों को दवा से ज्यादा सही काउंसिलिंग की जरूरत है। डॉक्टरों की मानें तो सिर्फ 25 प्रतिशत मरीज ही सही से अपना इलाज करते हैं। बाकी 70 प्रतिशत मरीज दवाओं में लापरवाही करते हैं। वह बीमारी को लेकर गंभीर नहीं होते। दवाओं और इनहेलर का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। मरीज सही दवा और परहेज रखें तो सामान्य जीवन जी सकते हैं।

इनहेलर कारगर उपचार: करीब 70 से 80 प्रतिशत मरीज दवाओं और सीरप पर डिपेंड हैं। एसएन मेडिकल कॉलेज के चेस्ट फीजिशयन डॉ. जीवी सिंह के अनुसार इनहेलर न लेने के लोगों में कई प्रकार की भ्रांतियां हैं। जबकि इनहेलर कॉरटिकोस्टेरॉयड थैरेपी अस्थमा को नियंत्रित करने में सबसे ज्यादा कारगर है। आईसीटी के मामले में दवाई की बहुत कम डोज सीधे सूजन भरी सांस की नलियों में पहुंचती है। इससे साइड इफैक्ट्स भी सीमित होते हैं। ओरल दवाई का डोज आईसीटी के मुकाबले कई गुना ज्यादा होता है और साइड इफैक्ट्स की संभावना भी ज्यादा होत हैं।