हल्द्वानी: देश का जड़ी-बूटी आधारित आयुर्वेदिक दवा उद्योग संकट की तरफ बढ़ रहा है। आयुर्वेद में वर्णित करीब पांच हजार जड़ी बूटियों में से केवल 960 का ही उपयोग हो पा रहा है। 178 जड़ी बूटियों की मांग प्रति वर्ष सौ टन से अधिक की है। इनमें से कई की आपूर्ति सिर्फ 25-30 टन तक ही हो पा रही है। जड़ी बूटी का अवैज्ञानिक दोहन और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव सेउत्पादन लगातार कम हो रहा है। वैज्ञानिक जड़ी बूटी की खेती और वैज्ञानिक दोहन को ही समस्या का समाधान मान रहे हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है कि बाबा रामेदव की कंपनी पतंजलि इतनी भारी संख्या में तमाम आयुर्वेदिक दवाओं का उत्पादन और सप्लाई कैसे कर रही है। कई दफा पतंजलि के उत्पादों में खोट सामने आया है। कहीं यही सब वजहें तो नहीं।
खैर, यहां वानिकी प्रशिक्षण अकादमी में आयोजित कार्यशाला में पहुंचे वन अनसुंधान संस्थान के विस्तार प्रभाग के प्रमुख डॉ. एके पांडे ने बताया कि देश में 2006 में हुए एक अध्ययन के मुताबिक आयुर्वेद में पांच हजार जड़ी बूटियों का जिक्र हैं। आयुर्वेदिक दवाएं बनाने वाली कंपनियां सिर्फ 960 वनस्पतियों का उपयोग करती हैं। इनमें 178 जड़ी बूटियां ऐसी हैं जिनकी मांग प्रति वर्ष 100 टन से अधिक है। इनमें से 21 जड़ी बूटियां सिर्फ उत्तराखंड में ही पाई जाती हैं। उत्तराखंड की वनस्पतियों में अतिस, वन ककड़ी, वज्रदंती, डोलू, जट्टामासी, सालम पेणा, सोनम, बेल, अग्निमंथ, पाडल, गमर, कंठकारी, वृहती, सालपर्णी, कृष्टपर्णी, गोखरू, वृत्ति, विर्धी, जीवक, क्षीर काकोरी, मैदा, महामैदा, काकोरी आदि प्रमुख रूप से शामिल है।
अवैज्ञानिक दोहन और जलवायु परिवर्तन के कारण इसमें से कई जड़ी बूटियां अब तेजी से कम होती जा रही हैं। मांग ज्यादा और आपूर्ति कम होने के कारण इन जड़ी बूटियों पर दबाव भी बढ़ता जा रहा है। ऐसे में इन वनस्पतियों के अस्तित्व पर संकट गहरा सकता है। इधर, समस्या से निपटने के लिए देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान इन जड़ी बूटियों की खेती को प्रोत्साहित करने की कोशिश में हैं। डॉ. एके पांडे ने सुझाव दिया कि उत्तराखंड के पर्वतीय जनपदों में लोग अगर ऐसी वनस्पतियों की खेती करें तो पलायन जैसी विकट समस्या से निपटा जा सकता है।