नई दिल्ली: लोगों को सस्ती दवा उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से ब्रांडेड से जेनरिक दवाओं की अनिवार्यता लागू करने पर मजबूती से आगे बढ़ रहे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और नियामक राष्ट्रीय दवा कीमत प्राधिकरण की नजर अब डॉक्टर और फार्मा कंपनियों के बीच होने वाली बिजनेस डील पर पड़ गई है। दवाओं की कीमत घटाने के लिए सरकार एकसमान विपणन संहिता बनाने पर तेजी से काम कर रही है, जिसमें दवा कंपनियों के खर्च पर सैर-सपाटे पर जाने वाले डॉक्टरों की निगरानी और दवाओं के मुफ्त सैंपल लेने की परंपरा को बंद करना भी प्राथमिकता है।
जानकारों का मानना है कि इस मुफ्त लुभावनी परंपरा के चलते दवाओं की लागत में 20 फीसदी से अधिक हिस्सा तय होता है। एक ब्रांड प्रबंधन और फील्ड फोर्स ट्रेनिंग कंपनी एनेबलर्स के संस्थापक विवेक हट्टागंडी ने एक राष्ट्रीय अखबार को दिए बयान में कहा भी है कि दवा विपणन के प्रचार पर औसतन 8 से 25 फीसदी तक लागत आती है, जो कंपनी के आकार और उसके उत्पादों पर निर्भर करती है। विश्लेषकों की मानें तो दवा वितरण में ‘बोनस’ बड़ी समस्या है। जब एजेंटों द्वारा डॉक्टरों को मुफ्त में दवाओं के पत्ते दिए जाते हैं तो इन्हें  बोनस की संज्ञा दी जाती है। इन दवाओं को बाजार मेंं उस उत्पाद के अधिकतम खुदरा मूल्य पर बेच दिया जाता है। सस्ती चिकित्सा सुविधाएं मुहैया कराना सरकार की प्राथमिकता में शुमार है। ऐसे में दवा कीमतों पर निगरानी रखने वाले नियामक राष्ट्रीय दवा कीमत प्राधिकरण (एनपीपीए) की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।