नई दिल्ली

नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन की सर्वे रिपोर्ट से सामने आया है कि देश की ग्रामीण आबादी का 86 फीसदी और शहरी आबादी का 82 फीसदी हिस्सा ऐसा है, जो महंगे इलाज पर ज्यादातर खर्च खुद ही उठाता है। ग्रामीण अपनी कुल जमा-पूंजी या कर्ज लेकर इलाज कराने को मोहजात हैं, तो शहरी आबादी अपने वेतन और पीएफ जैसे फंड व कर्ज पर इसके लिए आश्रित है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि आबादी के इन हिस्सों को किसी भी तरह का स्वास्थ्य बीमा कवर हासिल नहीं है. यानी इस आबादी को सरकारी या प्राइवेट बीमा कंपनियों की तरफ से इलाज जैसी जरूरी चीज पर कोई संरक्षण नहीं मिला हुआ है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इसका एक यह हल सुझाया था कि अगर सरकारें अपने सालाना बजट में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए दी जाने रकम में कुछ प्रतिशत भी इजाफा कर दें तो बड़ा फर्क पड़ सकता है। फिलहाल तो भारत उन मुल्कों में है, जहां स्वास्थ्य की सरकारी सेवाओं पर सबसे कम खर्च होता है। एक अनुमान के मुताबिक केंद्र व राज्य सरकारें और स्थानीय प्रशासन मिलकर जितनी रकम स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं, उससे तीन गुना ज्यादा पैसा लोग खुद ही चिकित्सा पर कर रहे हैं। सेहत पर खर्च के मामले में भारत में सरकारी और व्यक्तिगत स्तर पर किए जा रहे खर्च में इस अंतर की प्रमुख वजह बीमारियों से होने वाले नुकसान को व्यक्तिगत मान लेना है, इसका सीधा असर व्यक्तिगत होते हुए भी देश की उत्पादकता पर पड़ता है अर्थशास्त्रियों की राय में यह अप्रत्यक्ष प्रभाव देश को हजारों करोड़ का नुकसान करा रहा है एनआरएचएम जैसे घपलों की इतनी खबरें आई हैं कि गरीबों के इलाज की सरकारी योजनाएं महज एक भ्रम ही साबित होती हैं, यदि गरीबों के अच्छे व सस्ते इलाज की व्यवस्था न करते हुए उन्हें एंटीबायोटिक दवाओं और निजी अस्पतालों के भरोसे ही छोड़ा गया, तो यह  प्रवृत्ति हमारे देश की आर्थिक सेहत पर भारी पडऩे वाली है।
एक तरफ वैश्विक फ्लू और जीका वायरस जैसे संक्रमणों के बीमारियों का खतरा लगातार बढ़ रहा है, इलाज के मामले में सरकारें अचानक अपनी भूमिका सीमित करने के मूड में आ गई है। देश में कई नए एम्स खोलने की घोषणाएं तो हो रही हैं, लेकिन जिस तरह से इलाज में गरीबों की मदद की बजाय सरकार का जोर पीपीपी के जरिए अत्याधुनिक हॉस्पिटल खोलने, चिकित्सा के नए-नए केंद्र बनाने और वहां इलाज की आधुनिकतम व्यवस्था मुहैया कराने पर ही है, उससे अब लोगों को अपनी सेहत की फिक्र खुद करनी पड़ रही है। निजी अस्पतालों में इलाज काफी महंगा होता है, ऐसे में गरीबों को सब्सिडी देकर और मेडिकल इंश्योरेंस जैसे उपाय सुझा कर समाधान निकालने की बात कही जाती है, पर गरीब जानकारी के अभाव में न तो सब्सिडी का सही लाभ उठा पाता है और न ही इंश्योरेंस का।
पिछले साल राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के ड्राफ्ट में स्वास्थ्य संबंधी देखभाल पर होने वाले खर्च के बारे में टिप्पणी की गई थी कि बीमारी से जूझने में लोगों की आय का बड़ा हिस्सा खर्च होने लगा है, सेहत पर हो रहे ज्यादा खर्च के असर से परिवार की आय में होने वाली बढ़त और गरीबी घटाने के लिए चलाई जाने वाली सभी सरकारी योजनाओं के फायदे बेअसर होने लगते हैं।