नई दिल्ली। बॉस्टन स्थित नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में न्यूरो साइंटिस्ट रेबेका शेंस्की का कहना है कि मेडिकल प्रयोगों के लिए इस्तेमाल होने वाली दवाइयों का इस्तेमाल नर जानवरों पर ही किया जाता है। कई बार स्त्रियों के लिए बनने वाली दवाओं को भी मादा जानवरों के स्थान पर नर पशुओं पर ही परीक्षण के लिए इस्तेमाल किया जाता है। रेबेका का कहना है कि परीक्षण में इस भेदभाव का असर है कि महिलाओं पर प्रयोग होने वाली दवाएं उतनी प्रभावी नहीं रहती हैं। अपने रिसर्च पेपर में उन्होंने दावा किया है कि नर पशुओं पर परीक्षण लैंगिक भेदभाव का उदाहरण है और यह गंभीर क्षेत्र जैसे न्यूरो साइंस आदि में अधिक नजर आता है। रिसर्च पेपर के अनुसार, नर पशुओं पर होने वाले परीक्षण मादा जानवरों की तुलना में 6 गुना अधिक होते हैं। दवाओ के परीक्षण में भी महिलाओ को परेशानी हो रही है। क्या यह सही है या नहीं, दवाओं के परीक्षण के लिए महिलाओं को भी बराबर का हक मिलना चाहिए।
गौरतलब है कि रिसर्च में पुरुषों को लेकर लैंगिक भेदभाव कोई नई बात नहीं है। हकीकत यह है कि लंबे समय से मादा पशुओं के हार्मोन स्त्रावित होने के तर्क को आधार बनाकर ज्यादातर परीक्षण नर पशुओं पर ही किए जाते रहे हैं। इसका नतीजा है कि महिलाओं के लिए बनने वाली विशेष दवाओं का कई बार ठीक परीक्षण नहीं हो पाता है। शेंस्की ने अपने रिसर्च पेपर में यह भी दावा किया है कि नर पशुओं में हार्मोन बदलाव और व्यावहारिक उतार-चढ़ाव मादा पशुओं की तुलना में अधिक होते हैं। 2017 की एक स्टडी के अनुसार, बहुत से वैज्ञानिकों ने परीक्षण में लैंगिक भेदभाव का सवाल उठाया है, लेकिन इसके बावजूद दवाओं का परीक्षण अमूमन नर पशुओं पर ही किया जाता है। दवाओं का स्त्री और पुरुष पर अलग-अलग प्रभाव पड़ सकता है, इसे नजरअंदाज ही किया जाता है। एक अन्य रिपोर्ट में भी दावा किया गया है कि मार्केट में मौजूद ज्यादातर पेन-किलर्स का परीक्षण नर पशुओं पर ही किया जाता है। हालांकि, यह एक ज्ञात हकीकत है कि महिलाओं और पुरुषों को होने वाले दर्द के कारण अलग-अलग हो सकते हैं। हाई ब्लडप्रेशर के लिए आम तौर पर एक जैसी दवाएं ही मरीजों को दी जाती हैं।