एम्स के नए अध्ययन में सामने आया है कि मरीजों में एंटी बायोटिक दवाइयों का असर कम हो रहा है। देश भर के आईसीयू में भर्ती गंभीर इंफेक्शन के मरीजों पर एंटी बायोटिक दवाएं काम नहीं कर रही है। एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होते चले जाने का हाल ये हो गया है कि सबसे लेटेस्ट दवा जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रिजर्व एंटीबायोटिक कैटेगिरी में रखा है वो भी अब कई बार काम नहीं कर रही है।

देश के कई  बड़े अस्पतालों के साथ एम्स ने एक नेटवर्क तैयार किया है। सबसे असरदार एंटीबायोटिक दवा भी केवल 20 प्रतिशत ही काम कर रही है। ऐसी परिस्थिति में 60 से 70 प्रतिशत मरीजों की जान खतरे में बनी हुई है। एंटीबायोटिक का बेअसर होना कि साफ वजह है कि धड़ल्ले से मरीजों और डॉक्टरों का मनमर्जी से इसका इस्तेमाल किया गया।

इस संबंध में एम्स ट्रॉमा सेंटर के विशेषज्ञ का कहना है कि एंटीमाइक्रोबियल इंफेक्शन के मरीजों के इलाज के लिए अब हमारे पास विकल्प ही नहीं बचा है, जो सबसे बड़ी चिंता की बात है। एम्स ट्रॉमा सेंटर की प्रो डॉ पूर्वा माथुर का कहना है कि बीते सात सालों में ब्लड इंफेक्शन के मामले में कमी आई है। यह पहले प्रति एक हजार डिवाइस डे में 14 को होता था। यानी जब आईसीयू में मरीज एडमिट होता है तो उनमें कई प्रकार के डिवाइस लगे होते हैं, जिसकी वजह से उनमें हॉस्पिटल एक्वायड इंफेक्शन होता है। हमने इसमें कमी दर्ज की है और अब यह 14 से घटकर 9 रह गया है।

ये भी पढ़ें- दिल्ली HC ने नीति आयोग की समिति एकीकृत चिकित्सा नीति बनाने की प्रक्रिया को तेज करने को कहा

डॉ पूर्वा माथुर की निगरानी में तमाम अस्पतालों को जोड़ा जा रहा है। डॉ पूर्वा के मुताबिक दक्षिण के राज्यों में उत्तर भारत के मुकाबले इंफेक्शन कम पाया जा रहा है। इसी तरह मोटे तौर पर प्राइवेट अस्पतालों का इंफेक्शन कंट्रोल सरकारी अस्पतालों से बेहतर है।

एम्स ट्रॉमा सेंटर के चीफ डॉ कामरान फारुकी ने कहा कि यह पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है। एक दशक से कोई नई दवा नहीं आई है। इसलिए डॉक्टरों को फीवर, सर्दी, जुकाम जैसी परेशानी में एंटीबायोटिक्स नहीं देना चाहिए। बिना वजह हाई डोज में जंप नहीं करना चाहिए और मरीजों को भी यह समझना चाहिए कि जितना इस्तेमाल करेंगे, आगे उतना इसका असर कम होगा।