नई दिल्ली। भारत को दुनिया की फार्मेसी कहा जाता है. भारत दवा उत्पादन के क्षेत्र में मूल्य के आधार पर चौथे और मात्रा के हिसाब से तीसरे पायदान पर है. दुनिया के अधिकांश देशों में भारतीय दवा निर्यात की जाती है, जबकि अमेरिकी बाजार में भारतीय दवाओं की हिस्सेदारी 34 प्रतिशत है. मलेरिया, सामान्य बीमारियों, विटामिनों की कमी, डायबिटीज जैसे सामान्य रोग लक्षणों के साथ-साथ कैंसर, अस्थमा, एचआइवी, हृदय रोगों जैसे कठिन रोगों के लिए भी भारत का दवा उद्योग दवाइयां बनाता है। देश की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ पूरी दुनिया के लिए सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने का श्रेय भी भारतीय दवा उद्योग को जाता है।
लेकिन, पिछले कुछ वर्षों से चीनी साये के कारण भारतीय दवा उद्योग का आस्तित्व खतरे में पड़ गया है। इससे न केवल भारत की स्वास्थ्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, बल्कि दुनिया को सस्ती दवा उपलब्ध कराने की भारतीय क्षमता पर भी ग्रहण लग सकता है. वर्ष 2000 से पूर्व भारत दवा उद्योग की आपूर्ति श्रृंखला का अग्रणी देश था। देश में बने एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रेडिएंट्स (एपीआइ) यानी दवाओं के कच्चे माल की दुनियाभर में मांग थी. मौलिक रसायनों, मध्यवर्ती रसायनों और एपीआइ के क्षेत्र में भारत लगातार प्रगति कर रहा था।

लेकिन, 2000 के बाद एपीआइ और मध्यवर्ती सामानों की मैनुफैक्चरिंग भारत से खिसकती हुई चीन के हाथों में पहुंच गयी। चीन ने एपीआइ के उत्पादन क्षमता में अकल्पनीय बढ़ोतरी कर ली. साथ ही भारत समेत अन्य बाजारों में इसकी डंपिंग शुरू कर दी। चीनी सरकार की इसमें सक्रिय भागीदारी रही. कम ब्याज पर ऋण, लंबे समय के लिए ऋण अदायगी से मुक्ति, चीनी संस्था सायनोशेऊर द्वारा क्रेडिट गारंटी, शोध सहायता, निर्यात प्रोत्साहन (13 से 17 प्रतिशत), मार्केटिंग प्रोत्साहन, सस्ती बिजली और सामुदायिक सुविधाएं, जानबूझ कर लचर पर्यावरण नियामक कानून आदि प्रावधान किये गये।

इनमें से कई अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों के विरुद्ध भी थे. इन हथकंडों से चीन ने भारतीय एपीआइ उद्योग को नष्ट कर दिया. एंटीबायोटिक दवाओं के लिए मूल रसायन (एपीआइ) ‘6-एपीए’ के उदाहरण से यह बात स्पष्ट है। वर्ष 2005 में भारत चार निर्माताओं के साथ इस एपीआइ हेतु पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर था। आज भारत इसके लिए चीन पर निर्भर है. वर्ष 2001 तक यह एपीआइ औसतन 22 अमेरिकी डॉलर प्रति किलोग्राम के हिसाब से बिकता था। चीन द्वारा भारत और शेष दुनिया की उत्पादन क्षमता को नष्ट करने के लिए 2001 से 2007 के बीच इसे औसतन नौ अमेरिकी डॉलर प्रति किलोग्राम कर दिया गया।

इससे भारत की सभी चार कंपनियों ने इसका उत्पादन बंद कर दिया। जैसे ही भारतीय कंपनियां उत्पादन से बाहर हुईं, चीन ने कीमतों में इजाफा कर दिया। साल 2007 में 19 अमेरिकी डॉलर प्रति किलोग्राम से बढ़ती हुई यह कीमत अब 34 डॉलर प्रति किलोग्राम पहुंच चुकी है और लगातार बढ़ती जा रही है। समझा जा सकता है कि सस्ते चीनी एपीआइ का अंतिम परिणाम महंगा एपीआइ ही है।

आज चीन लगभग सभी प्रकार के एपीआइ में एकाधिकार स्थापित कर चुका है। जनवरी, 2020 से जुलाई, 2021 के आंकड़े देखें, तो सभी प्रकार के एंटीबायोटिक के मुख्य एपीआइ, ‘6-एपीए’ की कीमत 66 प्रतिशत बढ़ी, जबकि एंटीमलेरिया दवा हेतु मुख्य एपीआइ ‘डीबीए’ की कीमत 47 प्रतिशत बढ़ी, एजिथ्रोमायसीन हेतु एपीआइ ‘एरिथ्रोमायसीन टीआइओसी’ की कीमत 44 प्रतिशत बढ़ी, ‘पैंनिसीलिन-जी’ की कीमत 97 प्रतिशत और इसी प्रकार से बाकी सभी एपीआइ की कीमत भी बढ़ी है।

अभी जो एपीआइ भारत में बन रहे हैं, उनकी कीमतों को घटाकर उन्हें प्रतिस्पर्धा से बाहर करने का खेल चल रहा है। चीन भारत की जनस्वास्थ्य सुरक्षा को ध्वस्त करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहा है। पूरी तरह से चीन पर निर्भर होने पर संभव है कि चीन अगर एपीआइ की आपूर्ति बंद कर दे, तो हमारी जन स्वास्थ्य सुरक्षा ध्वस्त हो सकती है। देश में हर साल 1.5 करोड़ लोग मलेरिया से पीड़ित होते हैं, 5.45 करोड़ हृदय रोगों से ग्रस्त हैं, 22.5 लाख लोग कैंसर पीड़ित हैं, 125 करोड़ लोगों को एंटीबायोटिक की आवश्यकता पड़ती है, 21 लाख एचआइवी मरीज हैं और तीन करोड़ लोग डायबिटीज से पीड़ित हैं।

ऐसे में इन मरीजों का क्या होगा। चीन द्वारा ऐसा कदम उठाये जाने की संभावना कोई कपोल-कल्पना नहीं है, बल्कि हकीकत है। चीन पहले ही अमेरिका को दवा आपूर्ति रोकने की धमकी दे चुका है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने चेतावनी दी थी कि भारत की चीन पर एपीआइ हेतु निर्भरता राष्ट्रीय सुरक्षा खतरा हो सकती है।

भारत सरकार को तुरंत योजनापूर्वक एपीआइ के लिए चीन पर निर्भरता को समाप्त करने हेतु कड़े कदम उठाने होंगे। हाल ही में सरकार ने एपीआइ उत्पादन बढ़ाने हेतु कुछ प्रोत्साहनों (पीएलआइ) की घोषणा की है, जिसके अंतर्गत 12 हजार करोड़ रुपये की राशि तय की गयी है, लेकिन, केवल यही पर्याप्त नहीं होगा। चीन को कीमत-युद्ध में पराजित करने के लिए सरकार को सभी एपीआइ में ‘सेफगार्ड’ और ‘एंटी डंपिंग’ शुल्क लगाने होंगे।

शोध एवं विकास इकाइयों की स्थापना और उत्पादकों को उनकी सुविधा, पर्यावरण कानूनों में उचित प्रावधानों द्वारा एपीआइ इकाइयों के लिए जल्दी मंजूरी, टेस्टिंग उपकरणों हेतु आयात शुल्क में छूट, पर्यावरण कानूनों में विशेष छूट और सस्ते दरों पर भूमि का आवंटन आदि कुछ प्रयास हैं, जिससे हम इस आसन्न संकट से पार पा सकते हैं।