मुंबई। भारतीय फार्मा उद्योग को अमेरिका में दवाओं के पेटेंट खत्म होने का लाभ मिल सकता है। जानकारी अनुसार साल 2025-29 के बीच 63.7 अरब डॉलर मूल्य की छोटे मॉलीक्यूल वाली दवाओं के पेटेंट समाप्त होने जा रहे हैं। ये पिछले पांच वर्षों की तुलना में 65 प्रतिशत अधिक है।
अमेरिका में व्यापक लॉस ऑफ एक्सक्लूसिविटी (एलओई) के कारण भी भारतीय फार्मा को फायदा मिलने की आस है। इसके साल 2035 तक 180 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। लॉस ऑफ एक्सक्लूसिविटी का मतलब दवा का पेटेंट खत्म होने पर जेनेरिक दवा का बाजार में आना है। इस बदलाव से जेनेरिक दवा लाने में तेज वृद्धि होगी। इससे भारतीय दवा कंपनियां दमदार वृद्धि की स्थिति में होंगी और उन्हें फायदा मिल सकता है जिनकी जटिल जेनेरिक में विशेषज्ञता है।
अमेरिका में भारतीय कंपनियां शिल्पा मेडिकेयर, सिप्ला और ल्यूपिन जैसी कंपनियां बाजार हिस्सेदारी हासिल करने के मामले में बेहतर स्थिति में हैं। इन्होंने इंजेक्शन और श्वसन चिकित्सा जैसे विविध उपचारों में पहले ही निवेश कर रखा है। भारतीय कंपनियां वॉल्यूम का अंतर पाटने के लिए भी आगे आ रही हैं। अवसरों का यह दौर रणनीतिक अनुशासन की पृष्ठभूमि में सामने आ रहा है। यूएस एएनडीए की फाइलिंग में पिछले साल की तुलना में 25 प्रतिशत की गिरावट आई है। वित्त वर्ष 25 की फाइलिंग का समापन लगभग 550 पर होने की संभावना है। वित्त वर्ष 24 में इनकी संख्या 740 और वित्त वर्ष 22 में 857 थी।
यूएसएफडीए के मंजूरी वाले 750 से अधिक संयंत्रों के साथ भारत किफायती, अधिक गुणवत्ता वाली दवाओं के अगले दौर की अगुआई के लिए तैयार है। पेटेंट खात्मे से मिलने वाले 180 अरब डॉलर के अवसरों का लाभ उठाने के लिए अनुपालन और गुणवत्ता प्रणालियों पर निरंतर ध्यान देने की जरूरत होगी।