देश में 1800 ड्रग कंट्रोलर और मात्र 0.001 फीसदी दवा की गुणवत्ता का परीक्षण संभव
देश भर में नकली -अनब्रांडेड दवाओं की भरमार है। इन पर दवा विक्रेताओं का मोटा मार्जिन होता है। सरकार इन पर अंकुश लगाने में पंंगू दिखाई दे रही है। खुद सरकार द्वारा उपलब्ध कराए आंकड़ों के मुताबिक देश भर में मात्र 1800 ड्रग्स कंट्रोलर हैं और सात स्तरीय परीक्षणशालाएं हैं। सरकार के मुताबिक प्रति वर्ष मात्र 0.001 फीसद दवाओं की गुणवत्ता का परीक्षण ही भली भांति हो पाता है। देश भर के नब्बे फीसद मेडिकल स्टोरों के मालिक अंगूठा छाप हैं और सभी ने सालाना रायॅल्टी देकर फार्मेसिस्ट संबंधी वैधानिक अर्हता पूरी की हुई है या फिर सुविधा शुल्क चुकाकर छोटे मोटे संस्थानों से फार्मेसिस्ट का प्रमाण पत्र हासिल किया हुआ है। ऐसे में वे मरीजों को सही सॉल्ट और उसका काम्बिनेशन दे पाएंगे, इसमें संदेह है। सरकार की इस योजना की सबसे बड़ी खामी यही है कि मरीज के जीवन की बागडोर डॉक्टर के हाथ से निकल कर मेडिकल स्टोरों के हाथ में आ जाएगी क्योंकि वे मरीज को वही दवा देंगे जिसमें उन्हें अधिकतम मुनाफा मिलता है।
एक और बड़ा डर यह है कि इससे दवा कंपनियों का गठजोड़ डॉक्टरों से हटकर मेडिकल स्टोरों के पास चला जाएगा और ज्यादा मार्जिन के चलते वे मरीज को बगैर कोई मानक वाली घटिया स्तर की दवा देंगे। इस समय अपने देश में बिकने वाली कुल दवाओं में से 90 फीसद मंहगी ब्रांडेड होती हैं और तकनीकी रूप से एक ही सॉल्ट के ब्रांडों में बहुत बड़ा व गहरा अंतर होता है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप अच्छी ब्रांडेड दवाएं बनाने में काफी ज्यादा लागत आती है इसलिए स्वाभाविक रूप से वे काफी मंहगी होती हैं और लोकल स्तर पर बनाई जाने वाली घटिया अनब्रांडेड दवाएं उनका स्थान नहीं ले सकतीं। अगर सरकार की योजना परवान चढ़ती है तो इस बात की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि बाजार में निम्न गुणवत्ता वाली घटिया दवाओं की भरमार हो जाए और बड़ी कंपनियां भी ऐसा ही करने को मजबूर हो जाएं। इससे मरीज की जान पर जोखिम बढ़ जाएगा।
दरअसल, नई दवा यानी सॉल्ट या सॉल्ट काम्बिनेशन को तैयार करने अथवा उसका अधिकार खरीदने वाली कंपनी को उस पर अपने एकाधिकार के लिए अपने देश में कानूनन बीस साल का समय मिलता है। इस दौरान सॉल्ट को बेहद ऊंची व मनमानी कीमत पर ब्रांडेड दवा के रूप में बेचने के लिए कंपनियां स्वतंत्र होतीं हैं। बीस साल बाद जब यही सॉल्ट पेटेंट मुक्त हो जाता है तो फिर जेनेरिक या सॉल्ट के नाम से कोई भी कंपनी इसे बाजार में उतार सकती है। पर जेनेरिक दवाओं की कीमत पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण होता है और इनके सस्ते होने का यही मुख्य कारण है। कीमत में अंतर भी बहुत जबरदस्त होता है। मसलन ब्लड कैंसर की ग्लिवैक ब्रांड की दवा की माह भर की डोज करीब 1.18 लाख रुपये की होती है मगर इसी के एक माह के जेनेरिक डोज की कीमत मात्र 8,600 रुपये पड़ती है।
उधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई घोषणा के मुताबिक सरकार अतिशीघ्र ऐसे नियम लागू करने जा रही है जिससे डॉक्टर पर्ची पर केवल जेनेरिक दवायें यानी साल्ट का नाम ही लिख सकेंगे। अब तक वे अपनी परामर्श पर्ची पर ब्रांड समेत दवा का नाम लिखते हैं। प्रधानमंत्री के मुताबिक इससे मरीज अपने मनपंसद मेडिकल स्टोर से किसी भी उपलब्ध न्यूनतम कीमत वाले सस्ते ब्रांड की दवा ले पाएगा। इस कवायद के पीछे सरकार का मुख्य मकसद है डॉक्टर व दवा कंपनियों के बीच के गठजोड़ का उन्मूलन कर आम आदमी को सस्ती दवायें उपलब्ध कराना। पढऩे सुनने में बेहद अच्छी लगने वाली यह योजना न केवल अनगिनत खामियों से भरी है बल्कि मरीजों के लिए जानलेवा भी साबित हो सकती है।
इस योजना में दवाओं की गुणवत्ता व अन्य तमाम प्रकार की धांधलेबाजी पर अंकुश या उन्मूलन का कोई प्रावधान नहीं किया गया है। इसी प्रकार गलत, घटिया अथवा नकली दवा के चलते मरीज के साथ कोई भी अनहोनी होने पर डॉक्टर अथवा दवा विक्रेता, किसी की भी जवाबदेही सुनिश्चित नहीं की गई है। जबकि कोई भी नई योजना की सफलता, योजना शुरू करने से पूर्व तत्संबंधी क्षेत्र में गहराई तक पैठी खामियां दूर करने पर निर्भर करती है। पर इसका उल्टा ही होता है। खैर, सरकार की पहल अच्छी है बशर्ते इसे उचित ढंग से लागू किया जाए। मरीजों को उचित दाम पर दवा मिले इसके लिए और कारगर कदम उठाने होंगे। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)