मुंबई। भारतीय फार्मा उद्योग के लिए नई मुसीबत आ गई है। चीन से कच्चे माल के आयात के कारण घरेलू फार्मा की टेंशन अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि अब बांग्लादेश समेत अन्य देशों से विभिन्न बीमारियों की अवैध दवाओं ने देसी बाजार पर कब्जा जमा लिया है। इससे न सिर्फ घरेलू फार्मा कंपनियों की आमदनी पर असर पड़ रहा है, बल्कि मरीजों की जान को भी खतरा है। हालात यह है कि कैंसर के जिन रोगियों को इन दवाओं को लेने की सलाह दी जाती है, उनमें से 12 फीसदी लोगों तक ये नकली दवाएं पहुंच जाती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार बड़ी फार्मा कंपनियों के नाम पर कैंसर तथा लीवर से जुड़ी नकली और औषधि विभाग से बिना मंजूरी मिली दवाओं का ‘ग्रे’ मार्केट बढ़ रहा है। चूंकि ये दवाएं तस्करी कर देश में लाई जा रही हैं, इसलिए इसका सही-सही आंकड़ा मौजूद नहीं है, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक केवल कैंसर की दवाओं का यह ग्रे मार्केट करीब 300 करोड़ रुपये से अधिक का है।
कैंसर रोग विशेषज्ञों का कहना है कि कैंसर के जिन रोगियों को इन दवाओं को लेने की सलाह दी जाती है, उनमें से 12 प्रतिशत लोगों तक ये नकली दवाएं पहुंच जाती हैं। इन कैप्सूल्स की सुरक्षा और असर का कोई अता-पता नहीं है, क्योंकि वे लीगल रूट से देश में नहीं आ रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इन दवाओं का क्लीनिकल ट्रायल भी नहीं हुआ है और इन्हें ड्रग कंट्रोलर्स की मंजूरी भी नहीं मिली है। हालात यह है कि एंप्लॉयीज स्टेट इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन और सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम जैसी सरकारी संस्थान भी अंजाने में इन दवाओं को खरीद रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि ऑर्गनाइजेशन ऑफ फार्मास्यूटिकल प्रॉड्यूसर्स ऑफ इंडिया ने हाल में सरकार के समक्ष इस मुद्दे को उठाया था। सरकार ने दवा कंपनियों को आश्वस्त किया है कि जल्द ही इसके खिलाफ कदम उठाए जाएंगे। एक विशेषज्ञ ने कहा कि ऐसी अधिकतर दवाएं बांग्लादेश में बनती हैं। इन्हें केवल निर्यात के लिए बनाया जाता है। अगर सीमा पर कड़ी चौकसी की जाए तो इन दवाओं के देश में आने पर रोक लगाई जा सकती है।
अन्य दवाओं की तरह कैंसर की दवाएं रिटेलर्स द्वारा नहीं, बल्कि डिस्ट्रिब्यूटर्स के जरिए बेची जाती हैं। इसलिए इसका कारोबार करने वाले लोगों की पहचान करने में आसानी होगी। नोवार्टिस, जानसेन, आस्ट्रा जेनेका, ताकेडा और ईसाई जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। इसका बड़ा कारण यह है कि आस्ट्रा जेनेका की ऑसिमेटिनिव नामक जिस दवा की कीमत 2 लाख रुपये से अधिक है, वहीं इस दवा की कॉपी महज 4,500 रुपये में मिल जाती है। कई अन्य महंगी दवाओं का भी यही हाल है। ईसाई फार्मा के एमडी संजीत सिंह लांबा ने कहा कि दवाओं पर बार कोडिंग के जरिये इस फर्जीवाड़े को रोका जा सकता है। सरकार ने घरेलू बिक्री के लिए इसकी बार कोडिंग की घोषणा कर दी है, जो फिलहाल वॉलंटरी है। लेकिन, हम सरकार से आग्रह करते हैं कि वह इसे अनिवार्य कर दे।