कोरोना के इलाज में मददगार हो सकती है
कोविड-19 के जो मरीज इस बीमारी से लड़कर ठीक हो चुके हैं, उनके शरीर में बननेवाली ऐंटिबॉडीज की मदद से इस बीमारी से ग्रसित हो रहे नए मरीजों का इलाज संभव किया जा सके, इस दिशा में हेल्थ एक्पर्ट्स तेजी से काम कर रहे हैं।
इन्हें हो सकता है अधिक लाभ
अगर हम काम में सफल होते हैं तो यह कदम इस दिशा में फर्स्ट लाइन ऑफ डिफेंस साबित हो सकता है। खासतौर पर उन लोगों की जान बचाने में यह बहुत अधिक कारगर हो सकता है, जो 60 साल से अधिक उम्र के हैं या फिर कोरोना के अलावा किसी दूसरी क्रॉनिक डिजीज से भी जूझ रहे हैं।
वायरस को डिऐक्टिवेट करने का काम
ऐंटिबॉडीज किसी भी व्यक्ति के शरीर में उस समय विकसित होना शुरू होती हैं, जब वायरस उनके शरीर पर अटैक करता है। ये ऐंटिबॉडीज वायरस पर अटैक करती हैं और उसे डिऐक्टिवेट करने का काम करती हैं।
लंबे समय तक रहती हैं ब्लड में
डॉक्टर्स ने पाया है कि जब पेशंट कोरोना वायरस से लड़कर ठीक हो जाता है तब भी ये ऐंटिबॉडीज उसके शरीर में ब्लड के अंदर काफी लंबे समय तक प्रवाहित होती रहती हैं। इस कारण ऐसे मरीज का शरीर इस बीमारी के वायरस को पहचानकर उससे लड़ने के लिए हर समय तैयार रहता है।
प्लाज्मा थेरपी पर चल रहा है काम
इसलिए सायंटिस्ट इस दिशा में भी काम कर सकते हैं कि ऐंटिबॉडीज सर्वाइविंग पेशंट के शरीर से इन्हें निकालकर इंफेक्टेड लोगों के अंदर इंजेक्ट कर दें। इससे पेशंट का इम्यून सिस्टम इन ऐंटिबॉडीज की मदद से इनके जैसी और ऐंटिबॉडीज बनाना शुरू कर देगा। इस तरह की थेरपी को मेडिकल की दुनिया में प्लाज्मा डिराइव्ड थेरपी (Plasma Derived Therapy) कहा जाता है।
यह होती है पैसिव इम्युनिटी
इस तरह किसी बीमारी के इलाज के लिए दूसरे के शरीर से निकालकर किसी मरीज के शरीर में इंजेक्ट की गई ऐंटिबॉडीज के बाद उसके शरीर में जो इम्यूनिटी डिवेलप होती है, उस इम्युनिटी को पेसिव इम्युनिटी (Passive Immunity) कहा जाता है।
जीवनभर साथ का वादा नहीं
लेकिन पेसिव इम्युनाइजेशन लॉन्ग टर्म प्रोटेक्शन की गारंटी नहीं होता है। क्योंकि शरीर ने ऐंटिबॉडीज को खुद-ब-खुद प्रड्यूस करना शुरू नहीं किया। बल्कि आउटर सेल्स की मदद से यह काम किया था। इसलिए ऐसी इम्युनिटी व्यक्ति के शरीर में कुछ हफ्तों या महीनों तक ही रह सकती है। साथ ही पेसिव इम्युनिटी का प्रॉसेस काफी टाइम टेकिंग होता है।
इसलिए लगता है अधिक टाइम
क्योंकि किसी इम्यून व्यक्ति के शरीर से इन ऐंटिबॉडीज को प्यूरिफाई करने में काफी वक्त लगता है, इस कारण यह ट्रीटमेंट हाईली रिस्क वाले पेशंट्स को दिया जाता है। यह ट्रीटमेंट हेल्थ केयर वर्कर्स को भी दिया जा सकता है, जिनके इस इंफेक्शन में आने के चांस बहुत अधिक होते हैं। क्योंकि ये हर समय इस संक्रमण से ग्रसित मरीजों की देखभाल में व्यस्त रहते हैं।
बहुत पुरानी तकनीक है यह
प्लाज्मा थेरपी बहुत पुरानी तकनीक है और पहले भी इबोला वायरस के केस में इसका उपयोग किया जा चुका है। इसके जरिए इबोला के कई मरीजों का इलाज कर उन्हें ठीक किया गया है। इसी कारण उस समय पर इबोला वायरस का डेथ रेट करीब 30 प्रतिशत तक कम हो गया था।
इसलिए कारगर हो सकती है कोरोना में
कोरोना वायरस के केस में प्लाज्मा थेरपी इसलिए भी अधिक कारगर हो सकती है क्योंकि यह वायरस शरीर के सभी मेजर अंगों पर अटैक कर उन्हें हानि पहुंचाता है। ऐसे में ऐंटिबॉडीज के जरिए इस इंफेक्शन के संक्रमण को शरीर के अंदर फैलने से रोका जा सकता है।
बचा सकती है लोगों की जान
वैक्सीन हमारे शरीर को वायरस से लड़ने और खुद-ब-खुद ऐंटिबॉडीज बनाने के लिए तैयार करती है। लेकिन अभी कोरोना की वैक्सीन आम आदमी तक आने में करीब एक से डेढ़ साल का वक्त लग सकता है। ऐसे में तब तक प्लाज्मा थेरपी लोगों की जान बचाने में मददगार साबित हो सकती है।