नई दिल्ली। फार्मा कंपनियां खास ब्रैंड की दवाइयां प्रेसक्राइब करने के लिए डॉक्टरों और अस्पतालों को 20 प्रतिशत तक इंसेंटिव देती हैं। ऐसा खासकर कॉम्बिनेशन डोज के लिए किया जाता है। दवा कंपनियां इस इंसेंटिव की रकम भी मरीजों से ही वसूलती हैं। इस वजह से दवाइयां महंगी हो जाती हैं। सैनोफिस कंपनी की सूई पेंटाक्सिम डिप्थेरिया, पर्टसिस (कुकुर खांसी), टेटनस, कुछ खास तरह के न्यूमोनिया और पोलियो में काम आती है। इसके एक डोज की कीमत 2,800 रुपये है जिसमें 600 रुपये डॉक्टर या अस्पताल को इंसेंटिव के तौर पर मिलता है।
वहीं, हेक्सासिम वैक्सीन हेपटाइटिस बी से सुरक्षा के लिए लिया जाता है। इसकी कीमत 3,900 रुपये है जिसमें डॉक्टर अथवा अस्पताल को 750 रुपये प्रति डोज की दर से इंसेंटिव मिलते हैं। पेंटाक्सिम और हेपटाइटिस बी वैक्सीन का अलग-अलग डोज 2,860 रुपये का पड़ता है। यानी, हेपटाइटिस बी की कीमत महज 60 रुपये होती है। ज्ञातव्य है कि देश में हर वर्ष करीब 2 करोड़ बच्चों का जन्म होता है। इनमें 7 से 10 प्रतिशत यानी करीब 14 से 20 लाख बच्चों का वैक्सिनेशन सरकार की ओर से नहीं हो पाता है।
यानी, उनके वैक्सिनेशन के लिए मार्केट प्राइस पर पूरी रकम चुकानी पड़ती है। हालांकि, फार्मा कंपनियां इस बात से इनकार करती हैं कि डॉक्टरों-अस्पतालों को इंसेंटिव्स देना आम चलन हो चुका है। उनका कहना है कि वैक्सिन को सुरक्षित रखने के लिए कोल्ड चेन लॉजिस्टिक्स की जरूरत पड़ती है, जिसे मेंटेन करने का खर्च आता है।  फार्मा कंपनियां यह भी दावा करती हैं कि कॉम्बिनेशन वैक्सिन की लागत स्टैंडअलोन डोज के मुकाबले ज्यादा आती है क्योंकि कोई कंपोनेंट ऐड करने में मैन्युफैक्चरिंग की प्रक्रिया बहुत जटिल बन जाती है। इससे लागत में इजाफा होता है। पोलियो की सूई आदि के मामलों में स्टैंडअलोन डोज अब उपलब्ध ही नहीं हैं जिससे डॉक्टर कॉम्बिनेशन वैक्सीन देने को मजबूर होते हैं।